विफल होती भविष्यवाणी, खोती विश्वसनीयता : ऐसे में भारतीय सर्वेक्षणकर्ताओं को क्यों हटना चाहिए इससे पीछे?

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नई दिल्ली, 18 नवंबर (आईएएनएस)। अमेरिका में हाल ही में संपन्न राष्ट्रपति चुनाव में जनता ने रिपब्लिकन के पक्ष में जबर्दस्त उत्साह दिखाते हुए डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में मतदान किया और वह विजयी घोषित हुए। जबकि तमाम सर्वेक्षणों में उनकी प्रतिद्वंदी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार कमला हैरिस की जीत का दावा किया जा रहा था। ऐसे में इस चुनाव के नतीजे के बाद वहां की अनुभवी आयोवा पोलस्टर जेएन. सेल्जर ने चुनावी भविष्यवाणियों से दूर जाने का फैसला किया। यानी अब वह चुनावी सर्वेक्षण नहीं करेंगी। अब उनका फैसला सुर्खियों में है।

आयोवा पोलस्टर जेएन. सेल्जर ने लगभग तीन दशकों के सफल करियर के बाद ऐसा करने का फैसला किया है। उन्होंने 2024 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के नतीजे की भविष्यवाणी करने में अपनी विफलता पर निराशा व्यक्त की है।

रविवार को जारी एक बयान में, सेल्जर ने स्पष्ट किया कि वह आज के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करने की बढ़ती कठिनाई को स्वीकार करते हुए, चुनाव नतीजों के पहले सर्वे के काम से अपने आप को अलग कर रही हैं, वह अपने अन्य उद्यमों और कामों पर अब फोकस करेंगी। उनके इस फैसले को गौर से देखें तो भारत में भी इसी व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए इसके जरिए एक संदेश दिया गया है। उन्हें चुनाव पूर्वानुमानों में वैसी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसा सेल्जर को करना पड़ा था।

जेएन. सेल्जर के इस चौंकाने वाले फैसले के बाद भारत में ओपिनियन और एग्जिट पोल सर्वेक्षणों को करने वाली एजेंसियां सुर्खियों में आ गई हैं। यहां भी कई एजेंसियों को कई चुनावों में गलत भविष्यवाणियों से जूझना पड़ा है। कई वर्षों से, भारत में सर्वेक्षणकर्ताओं को विभिन्न लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उनके गलत आकलन के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है, उनके एग्जिट और ओपिनियन पोल अक्सर गलत साबित होते रहे हैं। अब सवाल पूछा जा रहा है कि क्या भारतीय सर्वेक्षण एजेंसियों को सेल्जर के नक्शे-कदम पर चलना चाहिए और इस विवादास्पद पेशे से दूर जाना चाहिए?

सेल्जर के बयान से चुनाव के लिए किए गए सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता के बारे में व्यापक बहस शुरू हो गई है, खासकर तब जब ये सर्वे और इसकी भविष्यवाणियां लगातार गलत साबित हो रही हैं।

उन्होंने लिखा, ”मेरी ईमानदारी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। जिन लोगों ने इस पर सवाल उठाया है, उनके पास इसे रोकने के लिए संभवतः कोई शब्द नहीं हैं।”

अपने नोट में सेल्जर ने सर्वेक्षणकर्ताओं के सामने आने वाली कठिनाइयों पर जोर दिया, यह स्वीकार करते हुए कि हाल के चुनावों में मतदाता की प्राथमिकताओं या उम्मीदवारों के बारे में सोच के बारे में पूर्वानुमान लगाना जटिलताओं से भरा रहा है।

ऐसे में भारत में भी सर्वे एजेंसियों द्वारा ओपिनियन और एग्जिट पोल सर्वेक्षणों के जरिए चुनावी नतीजों की सटीक भविष्यवाणी करने में विफलता इसी वजह से देखने को मिल रही है। क्योंकि मतदाता की सोच बदल रही है, राजनीति में भी जबर्दस्त परिवर्तन आया है और साथ ही मतदाता अब खुलकर बताने से बच रहे हैं कि आखिर वह किस उम्मीदवार का समर्थन करने के बारे में सोच रहे हैं।

भारत में एग्जिट पोल के सटीक होने की संभावना को लेकर कई वर्षों से बहस जारी है। यहां लगभग हर चुनाव में एग्जिट पोल के नतीजे चुनाव के परिणामों से मैच नहीं खाते हैं, जबकि कुछ मौके पर यह अपवाद जरूर हैं। लेकिन, इन कारणों से यहां भी इसको लेकर बहस इस बात पर केंद्रित हो गई है कि क्या अब इस प्रथा को बंद कर देना चाहिए। एग्जिट पोल के अनुमान की विफलताओं के उदाहरणों को देखें तो 2024 के लोकसभा चुनाव, 2023 छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव, 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2015 बिहार विधानसभा चुनाव और 2015 दिल्ली विधानसभा चुनाव के सर्वेक्षण और परिणामों में अंतर के जरिए इसको समझ सकते हैं। हाल ही में, हरियाणा के चुनाव परिणामों ने एक बार फिर एग्जिट पोल की भविष्यवाणियों को खारिज कर दिया है, जिससे ऐसे सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता पर संदेह और बढ़ गया है।

ऐसे में चुनाव परिणामों से पता चल रहा है कि सर्वेक्षणकर्ता अक्सर गलत साबित हो रहे हैं, चुनाव के वास्तविक परिणाम पूर्वानुमानों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। कुछ मामलों में परिणाम इतने विपरीत आ रहे हैं कि सर्वे एजेंसियों की ईमानदारी और क्षमता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। एग्जिट पोल पर बढ़ते संदेह ने कई लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया है कि क्या ये सर्वेक्षण अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं।

भारतीय चुनाव में एग्जिट पोल की विफलता के पीछे का कारण अक्सर बताया जाता है कि भारत में चुनाव प्रचार के “शोर” की वजह से जनता ने अपना मन बदल लिया। जबकि, इन सर्वेक्षणों में एक बात तो साफ है कि मतदाताओं के भीतर की उत्कंठा और सोच पर ध्यान ही नहीं दिया जाता है, इन सर्वेक्षणों में जनता की ऐसी भावनाओं पर बहुत अधिक भरोसा किया जाता है जो बहुत हद तक चुनाव में उम्मीदवार की सोच को लेकर स्पष्ट ही नहीं होते हैं।

कई पर्यवेक्षकों का तर्क है कि मतदानकर्ता तथाकथित उन “मतदाताओं” का सटीक आकलन करने में विफल रहते हैं जो इसको लेकर कुछ बोलते ही नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति जो खुले तौर पर अपनी राय व्यक्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन यही मतदाता अंततः परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। यह चूक उन कारणों में से एक है जिसके कारण सर्वे के नतीजे अक्सर उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते और सर्वेक्षणकर्ताओं को अपने गलत अनुमानों की वजह से विश्वसनीयता की कमी का सामना करना पड़ता है।

यही वजह है कि अब जनता और राजनीतिक विश्लेषक इन सर्वेक्षणों की वैधता को लेकर अधिक सतर्क हो रहे हैं।

अमेरिका में इस उद्योग से सेल्जर की विदाई के साथ, यह समझ बढ़ रही है कि भारत में चुनावी सर्वे एजेंसियों को या तो अपनी कार्यप्रणाली और दृष्टिकोण का पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत है या वे जो कर रहे हैं उसके बारे में बेहतर सोचने की जरूरत है।