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विवाह की उम्र 21 साल एक प्रगतिशील निर्णय लेकिन रास्ता आसान नहीं

Jan
12 2022

सुरेश तोमर

विवाह के लिए लड़कियों की भी उम्र 21 साल हो जायेगी, इस आशय का बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया गया है यदि यह कानून बनता है तो यह एक प्रगतिशील निर्णय होगा। यह निर्णय केन्द्र सरकार को महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा जया जेटली की अध्यक्षता में बनाई गयी समिति की अनुशंसाओं के आधार पर लिया गया है। उन्होने स्पष्ट तौर पर कहा कि अगर हम समाज में जेंडर समानता चाहते हैं और जीवन में अवसरों की समानता चाहते है तो हमें लड़कियों के विवाह की न्यूनतम उम्र 21 साल करनी होगी। अगर वोटिंग के लिए दोनों की उम्र बराबर है तो विवाह के लिए भी दोनों की उम्र  बराबर होनी चाहिए। ऐसे रूढ़िवादी स्वर सामने आते रहते हैं कि लड़कियों को घर पर रहना चाहिए और बच्चे पैदा करने और उनका लालन पालन करने की जिम्मेदारी निभाना चाहिए इसके बरक्स हमारा कहना है कि उन्हे घर से बाहर निकल कर शिक्षा प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ा होना ज्यादा जरूरी है। उन्हें भी बंधनो से मुक्त होकर राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग करना चाहिए। अगर हम लड़कियों को एक बोझ मानते हैं तो मुक्ति का मार्ग उन्हें शिक्षित करना और धनार्जन करने की प्रक्रिया में संलग्न करना है। विवाह की न्यूनतम आयु 21 वर्ष का होना लड़कियों को यह अवसर प्रदान करेगा।

विभिन्न हिन्दू मान्यताओं के अनुसार विवाह एक धार्मिक संस्कार अधिक है, सामाजिक और वैधानिक कम। हिन्दू धर्म में प्रांरभ में विवाह लड़के और लड़की के परिपक्व होने के बाद ही होता था, पंरतु सामयिक अंतराल में समाज में पितृसत्ता की स्थापना के साथ बाल विवाह प्रांरभ हो गये।  हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार (जिसमें मनुस्मृति प्रमुख है) लड़की के रजस्वला होने से पहले उसका विवाह कर देना चाहिए अन्यथा लड़की के पिता और भाई इत्यादि पर गौ-वध या कन्यावध का पाप लगेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में यौन शुचिता स्थापित करने के लिये बाल विवाह का प्रादुर्भाव हुआ। ताकि आविवाहित लड़की के गर्भवती होने की अप्रिय परिस्थिति से बचा जा सके।

'औरत होने की सजा' पुस्तक के लेखक अरविंद जैन सन् 1890 में घटित फूलमणी देवी के बाल विवाह की चर्चा करते हैं, जिसमें 10 वर्षीय फूलमणी का विवाह 30 वर्षीय हरीमोहन मिठी के साथ होता है क्योंकि उस समय विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं थी। जिस उम्र में उसे खिलौनों के साथ खेलना चाहिए था, उसके हाथ पीले कर दिए गये। सुहागरात के दौरान बलात्कार के कारण फूलमणी की मृत्यु हो जाती है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के निर्णय में पति हरिमोहन को एक वर्ष की सजा मिली और इसे बलात्कार नही माना गया, उसके बाद 1891 लड़की के लिये विवाह की न्यूनतम उम्र 12 वर्ष निर्धारित की जाती है। कट्टर रूढ़वादी हिन्दू नेताओं द्वारा इसे ब्रिटिश सरकार का हिन्दू संस्कृति में हस्तक्षेप कहकर भारी विरोध किया था। यहां तक की बाल गगांधर तिलक ने कहा की यह हिन्दू परपंराओ के खिलाफ है, क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार विवाह लड़की के रजस्वला होने से पहले हो जाना चाहिए। लेकिन ये निर्णय लागू हुआ, 1927 में विधिवेत्ता हरविलास सारदा द्वारा बाल विवाह रोकने के संबंध में केन्द्रीय असेंबली में प्रस्ताव रखा गया। तमाम विरोधों के बाद साल 1930 में सारदा एक्ट पारित हुआ और विवाह की उम्र लड़कियों के लिए 14 साल और लड़कों की 18 साल कर दी गई। फिर स्वतंत्र भारत में साल 1978 में सरकार ने लड़कियों के लिए यह उम्र बढ़ाकर 18 साल और लड़को की उम्र 21 साल कर दी।

इस संबंध में मुझे एक घटना याद आती है। लगभग एक दशक पहले हम लोग मध्य प्रदेश के भिण्ड जिले में बालिकाओं के लिए यूनिसेफ के सहयोग से उनके जीवन कौशल प्रशिक्षण के लिए 'सबला' नाम से एक प्रोजेक्ट कर रहे थे। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य उन्हें कम्प्यूटर, ब्यूटीपार्लर या फैशन डिजाईनिंग का प्रशिक्षण देना था, जिससे वे अपना स्वयं का रोजगार शुरू कर सकें। ये प्रोजेक्ट लगभग एक साल तक चला था। इस प्रोजेक्ट की कॉर्डिनेटर दो लड़कियां थी जिनकी उम्र लगभग 25 साल रही होगी और वे दोनो ही आविवाहित थीं। दोनों ही युवतियां देश के अलग-अलग प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों से अपना ग्रेजुएशन पूरा कर चुकी थीं । वे अपने केरियर का चयन करने की प्रक्रिया में थीं और अनुभव प्राप्त करने के लिए इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहीं थीं।

एक दिन हम लगभग 50 बालिकाओं के साथ बात-चीत कर रहे थे और एक स्थानीय युवती जिसकी उम्र 21-22 साल रही होगी हमारी बातें अजनबियों की तरह सुन रही थी। उसकी गोद में एक शिशु था, तो मैंने उससे पूछा कि तुम्हारी उम्र कम है और तुम भी ये प्रशिक्षण ले सकती हो, जिससे तुम अपने पैरों पर खड़ी हो जाओ, तब वह निराश होकर बोली कि नहीं, मेरी शादी 16 साल की उम्र में हो गई थी, मेरे तीन बच्चे हैं। अब तो मुझे इन बच्चों के लिए ही जीना है। अपने लिए कुछ भी सीखने से क्या फायदा ?

इस युवती की बात सुनकर मैं सोचने के लिये बाध्य हुआ कि इधर तो दो पढ़ी लिखीं युवतियां हैं जिनका न अभी विवाह हुआ है न उन्होने व्यवस्थित ढंग से नौकरी या कोई रोजगार शुरू किया है। देखा जाये तो वे अपनी शिक्षा पूरी कर जीवन की दहलीज पर पहला पांव रखने जा रहीं हैं उधर उनसे कम उम्र की एक युवती का बाल विवाह के कारण जीवन समाप्त हो चुका है। ये नैराश्य किसी भी लड़की के कम उम्र में विवाह का स्थायी भाव है।

सबला प्रोजेक्ट की इन बालिकाओं ने एक बार अपने वार्षिक आयोजन में ‘‘स्थानीय स्तर पर उन्हें किन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है,’’ विषय के संबंध में अपनी बात रखी। उन्होंने दृढ़ता से यह तथ्य रखा कि लड़कियों के विवाह की उम्र भी लड़कों के बराबर यानी कि 21 साल ही होनी चाहिए। ताकि उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अतिरिक्त 3 साल मिल सकें, क्योंकि यह तीन साल लड़कों को उपलब्ध हैं। लड़कों की तुलना में लड़कियों की विवाह की उम्र कम होने का कोई कानूनी आधार नहीं है। उनका कहना था कि हमारे माता-पिता 18 वर्ष की उम्र होने के कारण सोचते हैं कि बस लड़कियों को कैसे भी इंटरमीडिएट (12 वीं पास) कराकर इनके हाथ पीले कर दो।

विवाह की कानून उम्र 21 साल होने पर लड़कियाँ कम-से-कम स्नातक हो जाएंगीं और उनका भविष्य काफी कुछ निर्धारित हो जाएगा। वे 21 वर्ष की आयु में अधिक परिपक्व होकर अपने जीवन के बारे में बेहतर निर्णय ले पाएंगी, वे स्वयं के अच्छे भविष्य के लिए संघर्ष कर पाएंगी। हम ये पाते हैं कि महिलाओं पर घरेलू हिंसा का मुख्य कारण उनका आर्थिक तौर पर अपने पति या उसके परिवार पर निर्भर होना है। ये कानून उन्हें आर्थिक तौर पर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए प्रेरित करेगा, तो निसंदेह घरेलू हिंसा के प्रकरणों में तीव्र गिरावट आएगी। अगर स्त्रियों को सही मायनों में अपने पैरों पर खड़े होना है, तो उनका बटुआ भारी होना चाहिए। विवाह में धार्मिक और कानूनी रूप से लड़के की उम्र लड़की से सदैव अधिक रही है।

यह पहली बार हुआ है कि प्रस्तुत कानून में दोनों की आयु 21 वर्ष हो जाएगी। हमारे समाज में अधिक उम्र भी श्रेष्ठता का पर्याय है। विवाह में स्त्री और पुरूष दोनों का दर्जा बराबर का होना चाहिए, परन्तु लड़के की अधिक आयु का होना उसे मानसिक तौर पर श्रेष्ठ होने का बोध कराता है और लड़की स्वयं को कम उम्र का होने के कारण अनजाने ही विवाह संस्था में लड़के की तुलना में कनिष्ठ मान लेती है। यहाँ एक किस्म की गैर बराबरी शुरू हो जाती है। उन दोनों की ही उम्र 21 वर्ष का होने के कारण एक बराबरी का भाव पैदा होगा, जिसके लिए हम सालों से जद्दोज़हद कर रहे हैं। बाल विवाह के कारण लड़कियों को कम उम्र में माँ बनने के लिये बाध्य होना पड़ता है। मेडीकल सांइस के अनुसार 20 वर्ष से कम की उम्र में एक लड़की का शरीर माँ बनने के योग्य नही होता है। इस निर्णय के कारण लड़कियों के स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा। हम जब 2011 की जनगणना की समीक्षा करते हैं तो पातें हैं अशिक्षित माओं के औसतन 3.9 बच्चे है। जबकि जिन माओं ने ग्रेजुशन या उससे अधिक पढ़ाई की है। उनकी औसतन 1.9 बच्चे है। विवाह की उम्र 21 वर्ष होने पर लड़कियों के ग्रेजुट होने की संभावना बड़ जाऐगी ऐसी स्थिती में जनसंख्या पर नियंत्रण होने की संभावना बनेगी। इस निर्णय से परिवार, समाज और बच्चों पर सकारात्मक आर्थिक और समाजिक प्रभाव पड़ेगा।

इस सकारात्मक पहल के बावजूद कई सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। जिसमें ऐज ऑफ कंसेंट(सहमति से सहवास की उम्र) का मसला सबसे प्रमुख है, क्योंकि यह उम्र तो अभी 18 साल है। क्या इस कानून में ऐज ऑफ कंसेंट में बदलाव किया जाएगा, अभी स्पष्ट नहीं है। हमारा समाज यौनिकता के विषय को सहजता से स्वीकार नहीं करता है। ऐसी परिस्थिति में पुलिस, सरकारी एजेंसी और समाज किशोरावस्था में यौनिकता को अपराध की दृष्टि से देखते हुए उन्हें प्रताड़ित तो नहीं करेंगे। क्या इसके अनुसार पॉक्सो एक्ट में भी बदलाव किया जाएगा? ऐसी स्थिति में 18 से 21 साल की युवतियों को अनैतिक व्यापार अधिनियम(इम्मोराल ट्रेफिकिंग एक्ट) के तहत किस तरह बचाव मिलेगा।

हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जब लड़कियों के विवाह की उम्र 18 साल थी तब भी बड़ी संख्या में बाल विवाह होते थे। 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 52 लाख लड़कियों का बाल विवाह हुआ था। आशंका है कि यह उम्र 21 साल होने पर इस संख्या में और वृद्धि होगी। यह भी देखने में आया है कि बाल विवाह अधिकतर गरीब आदिवासी और पिछड़ावर्ग में प्रचलित है सरकार को न केवल शिक्षा की समुचित व्यवस्था करने की आवश्यकता है बल्कि गरीबी और बेरोजगारी पर भी नियंत्रण की जरूरत है। तभी इस कानून के सार्थक परिणाम प्राप्त होंगें।

(लेखक महिला एवं बाल विकास विभाग मध्यप्रदेश में संयुक्त संचालक हैं एवं जेंडर समानता के मुद्दे पर काम करते हैं)

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