बैट्समैन अब ‘बैटर’ हो गया, ‘प्लेयर ऑफ द मैच’ खिताब दिया जाने लगा, यही तो है विंड ऑफ चेंज : अंजुम चोपड़ा

0
6

नई दिल्ली, 7 मार्च (आईएएनएस)। इंडियन वुमन क्रिकेट टीम की पूर्व कप्तान और अपनी धारदार कमेंट्री से खेल की बारीकियां समझाने वालीं अंजुम चोपड़ा किसी पहचान की मोहताज नहीं। जेन जी की आइकन रहीं तो जेन अल्फा भी इनकी कम मुरीद नहीं है। क्या एक ऐसे देश में जिसमें ‘जेंटलमेन गेम’ को धर्म की तरह पूजा जाता हो, वहां एक ‘जेंटललेडी’ का सफर आसान रहा? कैसे खुद को मोटिवेट किया और किस तरह इस मुकाम तक पहुंचीं? ऐसे कई सवालों के जवाब महिला दिवस के खास मौके पर न्यूज एजेंसी आईएएनएस से विशेष बातचीत में पद्म श्री अंजुम चोपड़ा ने दिए।

जिनके नाना एथलीट, पिता गोल्फर, मां कार रैली चैंपियन और मामा भी क्रिकेटर रहे हों, भला उनके लिए क्रिकेट खेलने में कैसी दिक्कत? लेकिन ऐसा नहीं रहा। भारतीय महिला क्रिकेट टीम की पूर्व कप्तान ने कहा, “स्पोर्ट्स में आना आसान था क्योंकि घर में सब इसे समझते थे, लेकिन क्रिकेट को बतौर करियर चुनना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल था। मुझे याद है नेशनल चैंपियनशिप में खेलना था, लेकिन उसी समय मेरा एमबीए एंट्रेंस भी था। घर से कहा गया कि पहले पढ़ाई फिर खेल। तब गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन मैंने अपनी पढ़ाई भी खेल के साथ पूरी की।”

अंजुम के मुताबिक, “उस समय आम सोच ही कुछ ऐसी थी। लगता ही नहीं था कि क्रिकेट में करियर है। वुमन क्रिकेट को तो बस एक शगल या हॉबी की तरह ट्रीट किया जाता था, लेकिन हां, हमने मेहनत भी खूब की।”

अक्सर सवाल पूछा जाता है कि तब और अब में क्या बदला है? महिला क्रिकेट का रसूख बढ़ा है या अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है? अंजुम कहती हैं- “बदला तो है। बदलाव अच्छा है। हमने तो ग्राउंड पर घास काटी है, रोलर तक चलाया है। प्रैक्टिस के दौरान बजरी पर मैट बिछाई है, हमारे पास वो सुविधाएं नहीं थीं। एस्ट्रो टर्फ तो बहुत बाद में आया। इससे हुआ ये कि हम जमीन से जुड़े रहे और मजबूत बने रहे। चाहे वो फील्ड में हो या फिर उससे बाहर!”

दुनिया में पहला क्रिकेट वर्ल्ड कप महिलाओं ने खेला, फिर भी यह ‘जेंटलमेन’ गेम है! कैसा लगता है ये देख सुनकर? इस सवाल पर हंसते हुए कहती हैं, “क्यों, अब प्लेयर ऑफ द मैच, बैट्समैन की जगह ‘बैटर’ शब्द इस्तेमाल होता है, यही तो विंड ऑफ चेंज है। मुझे याद है 1995 में जब मुझे इंडियन टीम का ब्लेजर मिला था, तो हम सब नेहरू स्टेडियम डॉरमेट्री में रहती थीं। मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी। ऊपर-नीचे दौड़ रही थी। एक बात और, उस समय खुद को ब्लेजर पहन आईने में भी नहीं देख सकती थी। जानते हैं क्यों? क्योंकि तब एक आईना तक नहीं था। तो कह सकते हैं चीजें बदली हैं। पुरुष क्रिकेट ने महिला क्रिकेटर्स को सपने देखने का हौसला दिया है। डब्ल्यूपीएल में पहले क्राउड न के बराबर दिखता था, लेकिन अब तादाद बढ़ी है।”

नई पौध को क्या कहना चाहेंगी ‘द अंजुम चोपड़ा’? बस एक बात, मजबूत बनो। क्रिकेट एक टीम गेम है, लेकिन उतना ही इंडिविजुअल भी। मतलब प्रयास करना मत छोड़ें। मेहनत करें। खुद नहीं समझ पा रहीं तो परिवार से अपने गुण-दोष के बारे में जरूर समझें।