नई दिल्ली, 22 सितंबर (आईएएनएस)। ‘तुमसे अलग होकर लगता है अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं, और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में गिरता जा रहा हूं। अब कहीं कोई यात्रा नहीं है, न अर्थमय, न अर्थहीन, गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं’, हिंदी साहित्य के बेहतरीन साहित्यकारों में शुमार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इन पंक्तियों को स्याही में पिरोने का काम काम किया। वह इस कविता के जरिए न केवल यात्रा से रूबरू कराते हैं बल्कि वह जीवन के अंतर को भी बयां करते हैं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पहले ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने बाल-साहित्य के विषयों पर खूब लिखा। ‘बतूता का जूता’ हो ‘महंगू की टाई’ हो या फिर ‘भों-भों खों-खों’ या ‘लाख की नाक’, बाल साहित्य से जुड़े ये उपन्यास, जिन्हें शब्दों में उतारा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने। उनके लिखे साहित्य को युवा हो या बच्चे हर किसी का खूब प्यार मिला।
साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 23 सितंबर को पुण्यतिथि है। उन्होंने अपने करियर के दौरान कविता, गीत, नाटक और आलेख लिखे।
15 सितंबर 1927 को यूपी के बस्ती में पैदा हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाता एक छोटे से कस्बे से था। उनकी उच्च शिक्षा वाराणसी और इलाहाबाद में पूरी हुई। इसके बाद उन्होंने अध्यापक के रूप में काम किया। हालांकि, बाद में वह आकाशवाणी से जुड़ गए। इस दौरान वह अज्ञेय के आमंत्रण पर ‘दिनमान’ अखबार से जुड़े मगर ये साथ भी कुछ समय तक ही रहा। वह कुछ समय बाल पत्रिका ‘पराग’ के संपादक भी रहे।
साल 1951 में उनके काव्य-लेखन की शुरुआत हुई थी, ‘परिमल गोष्ठी’ में उनकी चर्चा बढ़ी तो उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से नई कविता को तलाशने का प्रयास किया। उनका पहला कविता-संग्रह ‘काठ की घंटियां’ 1959 में पब्लिश हुआ। इसी साल ‘तीसरा सप्तक’ आया, जिसमें उनकी कविताओं को शामिल किया गया। जिन सात कवियों की कविताओं को ‘तीसरा सप्तक’ में सम्मिलित किया गया, उनमें से सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी एक थे।
वह अपनी लिखी एक कविता के माध्यम से प्रेम को बहुत ही खूबसूरती के साथ बयां करते हैं। उन्होंने लिखा, “तुम्हारे साथ रहकर, अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि दिशाएं पास आ गई हैं, हर रास्ता छोटा हो गया है, दुनिया सिमटकर, एक आंगन-सी बन गई है जो खचाखच भरा है, कहीं भी एकांत नहीं, न बाहर, न भीतर।”
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को पत्रकार के रूप में ‘चरचे और चरखे’ से पहचान मिली, जो दिनमान में पब्लिश होता था। साल 1974 में प्रकाशित हुए उनके लिखे नाटक “बकरी” का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया था। बताया जाता है कि भारत सरकार ने इमरजेंसी के दौरान इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। साल 1983 में कविता संग्रह ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था।
उन्होंने अपनी किताब ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ में लिखा है, “जब सब बोलते थे, वह चुप रहता था। जब सब चलते थे, वह पीछे हो जाता था। जब सब खाने पर टूटते थे, वह अलग बैठा टूंगता रहता था, जब सब निढाल हो सो जाते थे, वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था। लेकिन, जब गोली चली, तब सबसे पहले वही मारा गया।”