साहित्य के विभिन्न पहलुओं को छूते हुए लेखन पर विमर्श के नाम रहा विश्वरंग का साहित्य उत्सव

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भोपाल : 23 दिसंबर/ विश्वरंग 2023 का तीसरे दिन साहित्य उत्सव के रूप में आयोजित किया गया जिसमें दिन की शुरुआत मंगलाचरण से करते हुए महेश, अमित एवं ऋषभ ने वायलिन पर तिगलबंदी पेश की। इसमें उन्होंने राग पीलू में ठुमरी को पेश किया। इसके बाद “सलोना सा साजन…”, “श्री राम चंद्र…”, “हे राम, हे राम…” गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति से सभी श्रोताओं का मन मोहा। अंत में “बाजे मुरलिया बाजे…” को प्रस्तुत किया।

सुबह के प्रमुख सत्र की शुरुआत वीडियो फिल्म “धरती” की स्क्रीनिंग से हुई। इसके बाद “हमारी धरती का भविष्य” विषय पर व्याख्यान सत्र में देवेंद्र मेवाड़ी का प्रमुख व्यक्तव्य रहा एवं सान्निध्य विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे और साहित्यकार महादेव टोप्पो का रहा। सत्र संचालन टैगोर विश्वकला केंद्र के निदेशक विनय उपाध्याय द्वारा किया गया। अपने वक्तव्य में देवेंद्र मेवाड़ी ने कहा कि 4 अरब 60 करोड़ साल पुराने समय से पृथ्वी के निर्माण की कहानी बताई। इस दौरान उन्होंने दशक वार पृथ्वी और इस सृष्टि के निर्माण को क्रमवार बताया। पृथ्वी, सूर्य और अन्य ग्रहों के निर्माण और पृथ्वी के माता बनने को भी उन्होंने सबके सामने रखा, कि अन्य ग्रहों के निर्माण के बाद पृथ्वी माता के रूप में मानी गई। उन्होंने इस संसार में धूमकेतु को पानी लाने का माध्यम बताया और पानी के बाद और जीव जंतुओं के विकास की विस्तार से जानकारी दी। वायुमंडल में जीवन, सहित मनुष्य के जन्म की कहानी उन्होंने सबके सामने रखी। उन्होंने यह भी बताया कि औद्योगिक क्रांति ने किस तरह से इस पृथ्वी के विनाश की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया। जंगल काटने और कंक्रीट के जंगल बनने से लेकर पशु पक्षियों के जीवन के संकट को भी उन्होंने बहुत ही भावनात्मक तरीके से सबके सामने रखा। उन्होंने आज के कंप्यूटर युग को भी परिभाषित किया और कोरोना कल की वैश्विक महामारी को भी रेखांकित किया। उन्होंने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि यदि इसी तरह प्रदूषण बढ़ता रहा तो, वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य जीवन ही खत्म हो जाएगा। ग्लेशियर पिघलने से समुद्र के किनारे के देश खत्म हो जाएंगे, और नए विषाणु तेज गति से तैयार हो रहे हैं, निश्चित रूप से समस्त मानव जाति पर यह संकट है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया की प्रकृति को बचाने का एकमात्र विकल्प है, कि हम प्रकृति के साथ रहे और इस धरती को बचाने की मुहिम तेजी से शुरू की जाए।

संतोष चौबे ने कहा कि प्रकृति का विनाश करने वाली विचारधारा को खत्म करना बेहद जरूरी है , तभी हम प्रकृति के संरक्षण की दिशा में काम कर सकेंगे . उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों को दोहराते हुए कहा, कि महात्मा गांधी प्रकृति की रक्षा की बात कही थी, जिसे हमने भुला दिया है.

अगली कड़ी में “धरती आज” कविता सत्र का आयोजन किया गया जिसमें बद्रीनारायण, वीणा सिन्हा, निशांत और पीयूष ठक्कर ने अपनी कविताओं को पेश किया। इस अवसर पर निशांत ने “ग्लोबल वार्मिंग…” विषय पर कविता सुनाई, जिसमें प्रकृति के दर्द को बताया। इसी तरह उन्होंने अपनी “मछलियों के रोने से बनता है पानी…” विषय में प्रकृति का स्पर्श दिया। उन्होंने “मा पृथ्वी है…” विषय पर कविता भी पढ़ी जिसे सभी ने सराहा। इसी तरह पीयूष ठक्कर ने गुजराती में कविता “ग्रीष्म की कुछ छबियां…” पढ़ी जिसे हिंदी में अनुवाद करके सुनाया। इस अवसर पर वीणा सिन्हा की बहुत ही मार्मिक कविता “सबसे छोटी चूड़ियां…” सुनकर सभी की आंख मे पानी आ गया। दूसरी कविता “बंगाल व झारखंड के रास्ते में…” कविता को सभी ने सराहा। इसी तरह बद्रीनारायण ने “बैठे हैं, हम गोल में पहाड़ में…” और “हाशिए” और “ना जाने क्या हुआ…” जैसी कई कविताएं सुनाई। महादेव टोप्पो ने “हृदय की भीतर आग को कोई नहीं देखता…” और “कविताएं मेरी ना पढ़िए…” शीर्षक से दो कविताएं सुनाईं। इस अवसर पर संतोष चौबे ने “मेरे अच्छे आदिवासियों…”, “धर्म-कर्म…” और “भूत बंगला…” कविताएं सुनाईं। कार्यक्रम का संचालन कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार बलराम गुमास्ता ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया। इस अवसर पर मुरलीधर नागराज ने बांसुरी वादन करके सबका मन मोह लिया।

प्रतिभा सिंह बघेल के गीतों ने किया मंत्रमुग्ध…

विश्वरंग की सांस्कृतिक गतिविधियों की श्रृंखला में तीसरे दिन का प्रमुख आकर्षण प्रतिभा सिंह बघेल की सिंगिग परफॉर्मेंस रही। इसमें उन्होंने बॉलीवुड सॉन्ग्स की जबरदस्त प्रस्तुति से हर किसी को झूमने पर मजबूर किया। शुरुआत “अल्बेला साजन… ” गीत से की। इसके बाद “इश्क सूफीयाना…”, “हम्मा हम्मा…”, “वे कमली…”, “चन्ना मेरे या…”, “दिल दिया गल्लां…” को पेश किया। इस दौरान गुलाबी ठंड के बीच युवाओं ने सॉन्ग्स का आनंद लिया और झूमते नजर आए।

चदरिया झीनी रे झीनी…

शाम के सांस्कृतिक सत्र की शुरुआत रोहित रुसिया एव समूह द्वारा गीतों की सांगीतिक प्रस्तुति से हुई। इसमें उन्होंने “तेरा मेरा मनवा…”, “समय का साथी”, “”राम की चिरैया उड़ गई रे…”, “चदरिया झीनी रे झीनी…”, “हमन है इश्क मस्ताना….” और तेरी दिवानी की प्रस्तुति दी।

समानांतर सत्रों में साहित्य की दुनिया के विभिन्न पहलुओं पर हुआ विमर्श

मैं और मेरी कहानी के बीच एक सच्चाई होती है… नीलेश मिश्रा

“लेखक की दूसरी दुनिया” सेशन में लेखक और पॉडकास्टर नीलेश मिश्रा के साथ संवाद सत्र का आयोजन किया गया। इसमें ‘याद शहर की’ कहानी पर चर्चा करते हुए नीलेश मिश्रा ने कहा कि नोस्टेल्जिया को एक प्रॉप समझेंगे तो आप कभी भी सच्चे और ऑथेंटिक नहीं हो सकते। नोस्टेल्जिया एक जेवर है। नोस्टेल्जिया आपका घर है। हम अपने घर की और जब जाते हैं तो ये चीजें होती है, लेकिन दुनिया को देखने का तरीका होता है। खाना खाने का तरीका होता है, रिश्तों का एक तरीका होता है। सपने देखने का एक तरीका, कौन-से सपने बड़े है उसके लिए और कोई तरीका होता है। ये दुनिया साथ में लेकर आता है नोस्टेल्जिया। नोस्टेल्जिया के इर्दगिर्द कहानियां बुनना और नोस्टेल्जिया मतलब जो बीत गया। असल में वो बीता नहीं था असल में तो हम साथ लेकर चल रहे थे। शहर की धूल जम गई थी बड़े शहर में। मैं किसी एक्सेल शीट या मार्केटिंग के प्लान के तहत ये कहानियां नहीं सुना रहा था। मेरी सबसे बड़ी लड़ाई उन्हीं सबसे रही जो किसी विदेश की यूनिवर्सिटी से पढ़कर आ गए और कहे कि ये सही नहीं है। लेकिन वो जो दुनिया मेरी रेडियो पर जब मैंने शुरू किया कोई टारगेट बनाकर शुरू नहीं किया था। मुझे कहानी लिखना भी नहीं आती थी। मैंने शो बनाने के बाद लिखना शुरू किया था। उस कहानी का नाम था ‘दिवाली की रात’। उस कहानी में बस इतना सा था कि एक आदमी दीवाली के दिन घर नहीं जा पा रहा है। बहुत साल बाद देखा कि लोग इनसे कनेक्ट कर पा रहे हैं। किसी ने नहीं समझाया कि मुझे कैसे कहानी सुनानी है। मेरी और कहानी के बीच सिर्फ एक सच्चाई है। आज भी जब कहानी सुनाता हूं तो गला भर जाता है। सत्र का मॉडरेशन विकास अवस्थी ने किया।

विशेषज्ञों ने ओटीटी और सिनेमा पर रखे अपने विचार

साहित्य और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विषय पर सत्र में साहित्यकार मुक्तिबोध पर आधारित डॉक्यूमेंट्री आत्मसंभवा का प्रदर्शन किया गया। इसकी प्रस्तुति प्रसिद्ध साहित्यकार लीलाधर मंडलोई द्वारा की गई। डॉक्यूमेंट्री के बाद वैचारिक सत्र की शुरूआत हुई, जिसमें अशोक मिश्र, अजय ब्रहात्मज, मनमोहन चढ्ढा, मनोज नायर ने अपनी भागीदारी की। सत्र की शुरूआत में विचार प्रकट करते हुए मनोज नायर ने कहा कि भाषा के साथ एक्सप्रेशन बेहद जरूरी होता है जबकि नाटक या फिल्म में वही बात दृश्य के माध्यम से प्रकट की जाती है। फिल्म या नाटक पूरे समाज के लिये होता है और इसे ऐेसे ही बनाया जाना चाहिये। मनमोहन चढ्ढा ने इस मौके पर कहा कि ओटीटी एक तकनीक है और उस पर हमें तय करना चाहिये कि क्या देखना है और क्या नहीं। ऐसा नहीं सोचा जाना चाहिये कि नई तकनीक हमेशा ही समाज पर गलत प्रभाव डालती है। अशोक मिश्र ने कहा कि ओटीटी के लिये लेखन करते समय बेहद फोकस्ड होकर काम करना होता है। सिनेमा के लिये लेखन करते समय लेखक को थोड़ी छूट मिल जाती है। आजकल के परिदृश्य में लेखन बहुत सावधानी से करना जरूरी हो गया है। इस बात का नये लेखकों को ध्यान रखना चाहिये। वैचारिक सत्र के अंत में अजय ब्रहमात्मज ने कहा कि ओटीटी के लिये लिखना फिल्मों की अपेक्षा थोड़ा कठिन है। ओटीटी एक इंटरनेट लाईब्रेरी की तरह है जहां हर प्रकार की चीजें उपलब्ध है। इसलिये सिर्फ एक ही प्रकार के कंटेट को लेकर आपत्ति नहीं उठायी जानी चाहिये।

टीवी जर्नलिज्म: इनसाइड लाइव

“स्पोर्टस् जर्नलिज्म – इनसाइड लाइव” के सत्र में अतिथि के रूप में पहुंचे अनुराग दर्शन जी ने आज के समय में टेलिविजन में स्पोर्ट्स की रिपोर्टिंग और कार्यक्रम के प्रसारण से संबंधित तकनीकों के बारे में की। उन्होंने “’फोर्थ अंपायर” नामक टेलीविजन शो पर एक वीडियो फिल्म का भी प्रदर्शन किया। रेडियो एवं टेलीविजन में स्पोर्टस कमेंटरी के क्षेत्र में जाना पहचाना नाम, रमन भनोट जी ने भी सत्र में श्रोताओं को संबोधित करते हुए, खेल उद्घोषक के रूप में अपने पत्रकारिता की यात्रा के बारे में बताया। उन्होंने स्पोर्ट्स की लोकप्रियता और आम जन पर उसके प्रभाव के लिये टेलीविजन पत्रकारिता की अहम भूमिका पर विस्तार से चर्चा की। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता और संचालक के रूप में राजीव कुमार शुक्ल जी ने विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों से जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया। खेल पत्रकारिता में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यात्रा के बारे में भी श्री शुक्ल जी ने विस्तार से चर्चा की। सत्र में उपस्थित लोगों ने भी काफी उत्साह का परिचय दिया और खेलों में मल्टिकैमरा रिकार्डिंगे और प्रोडक्शन के बारे में भी प्रश्न पूछे गये, जिनका उत्तर अतिथियों ने भी उसी उत्साह के साथ दिया।

कहानी का लेखन हो रुचिपूर्ण

सत्र “कहानी लिखने की कला” की शुरुआत आकांक्षा पारे, आउटलुक की सहायक संपादक के कथा पाठ से की गई। इस कहानी का शीर्षक नीम हकीम था। जैसे-जैसे कहानी आगे की ओर बढ़ती गई वह और रोचक होती चली गई, जो निश्चय ही इस सत्र का विषय जो कहानी लिखने की कला थी उसे कहानी कहने की कला में बदल पाया। इस सत्र के मुख्य अतिथि मशहूर लेखक ऋषिकेश सुलभ, पंकज मित्र एवं समा बंदोपाध्याय थीं। ऋषिकेश सुलभ ने अपने संबोधन में कहा की कहानी पाठकों तक कहने की कला से ही पहुंचती है। इसके प्रस्तुति में नाट्य भी शामिल होता है। यथार्थ को हुबहू उतार देना कहानी नहीं कहीं जा सकती। इसे अपने वाचन की कला के अनुभव से लोगों तक पहुंचाना कहानी है। सोमा बंदोपाध्याय ने कहा कि बहुत सी कहानी वाचित परंपराओं से लिखी गई है, जो किसी घटना, कोई अनुभूति या कोई चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी कहानी का लेखन रूचिपूर्ण तथा संवाद धारदार होना चाहिए। पंकज मित्र ने कहा कि किसी कहानी की भाषा, लिखने का तरीका, उसका संदर्भ यह तय करता है कि वह कहानी सदी में कितने दिनों तक याद की जाएगी। सत्र का संचालन अरुणाभ सौरभ द्वारा की गई।

समकालीन प्रवासी साहित्य

प्रवासियों की पीड़ा बहुत बड़ी है, वह विदेश में होकर भी विदेशी कहलाते हैं और अपने मूल देश भारत में आकर भी विदेशी हैं। यह कथन कहे विश्वरंग के सत्र “समकालीन प्रवासी साहित्य” में डा. पुष्पिता अवस्थी ने। उन्होंने यह भी कहा की नीदरलैंड में 150 से अधिक देश के लोग रह रहें हैं, इस कथन पर जोर देते हुए कहा की प्रवासी भारतीय रचनाकार ना सिर्फ भारतीयों को पीड़ा को साहित्य में उतार रहें हैं अपितु वो उन सभी देशों के प्रवासियों की पीड़ा को लिख रहें हैं जो वहां रह रहें हैं। सत्र के प्रथम भाग में वक्ता के रूप में डॉ. पुष्पिता अवस्थी एवम् अनिल जोशी रहे, वहीं दूसरे भाग में विनय उपाध्याय जी ने वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर वसंत मिश्रा से चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन रामा तक्षक ने किया। सत्र में संतोष चौबे व लीलाधर मंडलोई की ” समकालीन प्रवासी साहित्य ” पुस्तक का लोकार्पण भी हुआ। पुष्पिता अवस्थी ने अपनी बात रखते हुए कहा कि प्रवासी व्यक्ति होता है, भाषा नहीं होती, साहित्य नहीं होता। जब मातृभूमि छूट जाती है तो वह याद रहती है लोकगीतों में, कहानियों में, भाषा में। जैसे हम स्वर्ग से प्रेम करते हैं वही प्रेम हम भारत से करते हैं। अनिल जोशी ने अपनी बात रखते हुए सवाल किया कि आज से 100 साल पहले भी जो किताबें निकाली गयीं उनका नाम प्रवासी साहित्य क्यों था? भारत सरकार एक बात कह रही है, एक बात जो स्थापित है हम उस पर 25 साल तक उसी पर क्यों बहस करते रहे। आज मोरेशियस में हिन्दी बोलने लिखने वालों में कमी आई है। सत्र के दूसरे भाग में वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर वसंत मिश्रा ने बताया कि 1983 में उनका पहला न्यूज फोटो फ्रंट पेज पर लगा। 80 के दशक में पहली बार जंगल सेंचुरी की तरफ रुख किया। उन्होंने यह भी कहा की वाइल्डलाइड की यात्रा आपके घर से शुरु होती है, आंगन ने गौरैया से लेकर जंगल के शेर तक का सफर होता है। वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी का यथार्थ है, धैर्य।

अनुवाद पर अनुवादकों ने अपने अनुभव किये साझा

“अनुवाद की दुनिया में खुलती खिड़की” विषय पर विचार सत्र में देश के राष्ट्रीय अनुवादकों ने अपने विचार साझा किये और नव अनुवादकों को प्रोत्साहित करने संबंधित सुझाव दिये। वैचारिक सत्र का आरंभ कुमार अनूदित की गईं वैश्विक कविताओं के कुमार अनुपम जी द्वारा किये गये पाठ से हुआ। उन्होंने इस विशेष अवसर पर व्यतीत और जैसे कोई तितली शीर्षक से कविताओं का पाठ किया। सत्र के अतिथि ओमा शर्मा ने अनुवाद पर कहा कि अनुवादक के लिये यह देखना जरूरी होता है कि वे मूल लेखक के पूरे परिवेश को अनुवाद में किस तरह ला पाते हैं। साथ ही अच्छा अनुवाद वह होता है जो दिल से लिखा जाये। अन्य अतिथि विजय कुमार ने अपने उद्बोधन में कई विदेशी अनुवादकों के उदाहरण दिये। उन्होंने कहा कि अनुवाद कोई भी हो वह अंतिम नहीं होता। एक अनुवादक को मूल अनुवाद के प्रति आस्था रखते हुए फिर पुनर्निमित करने की क्षमता अवश्य रखना चाहिये। सत्र के अंतिम वक्ता के रूप में यादवेन्द्र जी ने कहा अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें निरन्तर संशोधन होते रहते हैं। उन्होंने कहा कि अनुवाद में भी बड़े देशों के साहित्यकारों के अनुवाद ज्यादा हुये हैं इसलिये मेरी कोशिश है कि छोटे देशों के साहित्य को भी मैं अपने अनुवाद के जरिये पाठकों के सामने प्रस्तुत करूं। इस अवसर पर उन्होंने अनूदित कुछ फिलिस्तीनी कविताओं का हिन्दी में पाठ किया।इस महत्वपूर्ण सत्र में विश्व कविता संचयन पुस्तक का लोकार्पण भी अतिथियों द्वारा किया गया। इस विशेष सत्र का संचालन प्रांजल धर तथा श्रद्धाजी ने किया। सत्र में बड़ी संख्या में दर्शकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

एशियाई कहानी के परिदृश्य को लेकर चर्चा का आयोजन

वनमाली सभागार में एशियाई कहानी का परिदृश्य पर चर्चा का आयोजन देश की प्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा की अध्यक्षता में आयोजित की गई। नासिरा शर्मा ने पश्चिम एशियाई दास्तानगोई की परम्परा पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने कहा कि बदलते वक्त के साथ दास्तानगोई में भी परिवर्तन आया है। उन्होंने समय के साथ परिवर्तन को सही बताते हुए कहा कि बदलाव के साथ ही समय के अनुकूल वर्तमान पीढ़ियों को स्वीकार्य होती है और यह लगभग हर जगह पर अपनाए जाने की जरूरत है। वहीं प्रो. विनोद तिवारी ने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दिनों और उसके बाद में लिखी गई जहां आरा ईमाम की हथियार, सलीना नसरीन की दोहरा युद्ध, संजना हुसैन की मोतीजान की बेटियां, नियाज़ जमां, हेलेना चांद व अन्य लेखकों की कहानियों का जिक्र करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप का कथा परिदृश्य पर विस्तृत चर्चा की। राकेश बिहारी ने कहा कि कहानी का परिदृश्य केवल समय के परिदृश्य से नहीं बनता। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के बाद अब पुनर्सृजन कर लिखने का चलन बढ़ रहा है, जो इस ओर सकारात्मक बदलाव का संकेत है। संचालन आशुतोष ने किया।

भाषा दूरी खत्म करने का सबसे बड़ा काम करती है- सोमा बंदोपाध्याय

लेखक की दूसरी दुनिया विषय पर कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस अवसर पर विख्यात लेखक और कवि विजय कुमार ने अपने गद्य “शहर वह जो खो गया है…” का पाठ किया। उन्होंने गद्य के एक अंश “शहर में समय ही नहीं…” का पाठ किया। उन्होंने सवाल जवाब में संचालक अंजुम शर्मा से कहा कि वह शहर बहुत अभागे हैं, जहां खंडहर नहीं है। स्मृति और इतिहास का एक अपना महत्व है। उन्होंने इसी पंक्ति को भी अपने गद्य में समाहित किया और मुंबई के अनेक बातों का उल्लेख किया है। उन्होंने बताया कि शहर की गली, मोहल्ले, दुकान, नदी, तालाब, घर और शहर की चीज कुछ बातें रहती है। जरूरत है तो उसे महसूस करने की। शहर कई मामलों में लोगों के दिमाग में रहता है। इस अवसर पर साहित्यकार सोमा बंदोपाध्याय ने अपनी कहानी का पाठ किया। एक बहुत ही मार्मिक कहानी सबके सामने रखी। उन्होंने संचालक अंजुम शर्मा के सवालों के जवाब में कहा कि कहानी में जिन पेड़ का उल्लेख है, उसके बीच मैं बहुत ही बचपन से समय गुजरा था, और उसे अपने बुजुर्ग दादा या दादा नाना के रूप में देखा है। उन्होंने भाषा के सवाल पर कहा कि भाषा दूरी खत्म करने के लिए सबसे बड़ा काम करती है, जैसे ही हम दूसरे की भाषा में बात करते हैं हम उसके हो जाते हैं। इस अवसर पर साहित्यकार लीलाधर मंडलोई ने भी विजय कुमार के पुस्तक पर अपने विचार साझा किया।

भारत में महाकाव्य के रूप में सदियों पुराना है उपन्यास की मौजूदगी : उषा किरण खान

“उपन्यास की वैश्विक अवधारणा” सत्र में बात करते हुए उषा किरण खान ने कहा कि उपन्यास का इतिहास भारत में सदियों पुराना है। दरअसल हमारे देश में महाकाव्य के रूप में सदियों पहले उपन्यास की मौजूदगी रही है। हालांकि यह सत्य है कि पश्चिमी देशों का अनुकरण कर उपन्यास लिखने के रिवाज को भारत में बढ़ावा मिला और बाद में इसे ही लिखने का आधार मान लिया गया। सान्निध्य विश्वरंग के सह निदेशक मुकेश वर्मा का रहा। उन्होंने आगे कहा कि इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर उपन्यास के पश्चिमी मॉडल को आत्मसात की कोशिश हुई, लेकिन बदलते समय के साथ इसके घटते प्रभाव को महसूस किया जा सकता है। तत्पश्चात आरएनटीयू के कुलाधिपति व विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे की लिखित उपन्यास सपनों की दुनिया में ब्लैक होल का अंश पाठ किया गया। दरअसल इस उपन्यास के जरिए लेखक ने वर्तमान राजनीतिक परिदृश्यों में आमजनों के हालात और इसके बीच के कश्मकश व ओहदे का बेज़ा इस्तेमाल पर व्यंग्य को बखूबी दर्शाया गया है। उपन्यास की वैश्विक अवधारणा पर बात करते हुए राजकुमार मानते हैं कि भारतीय उपन्यासकार के पास आदर्श उदाहरण की जरूर कमी है लेकिन नवीन मॉडल निर्माण कर उपन्यास को नया आयाम दिए जाने पर सहमति जताई। वहीं अखिलेश ने “सपनों के दुनिया में ब्लैक होल” का जिक्र करते हुए कहा कि अगर इस उपन्यास को आप पढ़ेंगे तो इस बात का एहसास होगा कि जो यूरोपीय मॉडल का प्रचलन उपन्यास लेखन में बढ़ता चला गया, उस मॉडल को यह उपन्यास धाराशाई कर नई परिकल्पना को गढ़ता हुआ नज़र आएगा। उपन्यास में पश्चिमी मॉडल को अपनाए जाने की सबसे बड़ी वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि एक वक्त था जब दुनिया के एक बड़े हिस्से में यूरोपीय देशों वर्चस्व था, जिसका प्रभाव पड़ना लाजिमी था। क्योंकि कई बार नहीं बल्कि बार बार यूरोपीय लेखन को ही श्रेष्ठ बताने की कोशिश की गई, जिसका असर हुआ लेकिन एक तय समय के बाद परिवर्तन के दौर से भारतीय उपन्यास गुजर रहा है और आने वाले समय में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

अनुवाद का वर्तमान परिदृश्य

किताबों को दसों बार पढ़ने के बाद उनका अनुवाद किया है मैने, उन्हे अंतर्निहित करने के पश्चात ही उनका अनुवाद संभव है। यह कथन संतोष चौबे जी ने विश्वरंग के चौबीसवें सत्र में कहें। सत्र का विषय ‘अनुवाद का वर्तमान परिदृश्य’ था। सत्र में वक्ता के रूप में मुकेश वर्मा, ओमा शर्मा, खुर्शीद आलम एवम् मधु बी जोशी ने अपने वक्तव्य रखे। सत्र की अध्यक्षता संतोष चौबे ने की। संचालन निशांत उपाध्याय कर रहे थे। इस अवसर पर वनमाली पत्रिका के अनुवाद अंक का विमोचन भी संपन्न हुआ। पहले वक्ता के रूप में ओमा शर्मा ने अनुवाद के अनेक आयामों की चर्चा की और बताया की इतिहास में अनेक भाषा के बड़े लेखकों को हिंदी में अनुवाद किया गया है। और उस कार्य का संकलन वनमाली पत्रिका के इस अनुवाद अंक में किया गया है। उन्होंने कहा की भाषा की बारीकियों को ध्यान रखते हुए अनुवाद कार्य करना चाहिए।

खुर्शीद आलम जी ने कहा की उर्दू हिन्दी के बारे में हमारे बुजुर्गो ने थोड़ी सी गलतफहमी पैदा कर दी है, यह सिर्फ लिपि का अंतर है। इस गलतफहमी को हम ही ठीक कर सकते हैं।

मधु बी जोशी जी ने अपनी बात कहते हुए यह कहा कि हिंदी में साहित्यिक अनुवाद ने कमाई के अवसर कम हैं जबकि व्यापारिक और अन्य भाषाओं के अनुवाद में कमाई ज्यादा है। अनुवाद को व्यवसाय बनाना हो तो विलुप्त होने के लिए तैयार रहें। मुकेश वर्मा ने वनमली कथा के अनुवाद विशेषांक के बारे में कहां की ऐसे अंको के बदौलत ही आप मेरे ग्राहक बने रहेंगे।