2,000 वर्षों के भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून पैटर्न का पुनर्निर्माण

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नई दिल्ली, 5 नवंबर (आईएएनएस)। एक महत्वपूर्ण शोध के मुताबिक पिछले 2000 वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में मानव इतिहास को आकार देने में जलवायु-संचालित कृषि परिवर्तनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय शोधकर्ताओं ने बीते 2000 वर्षों के भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून पैटर्न का पुनर्निर्माण किया है। यह शोध सैकड़ों वर्षों के जलवायु पैटर्न को समझने के महत्व को रेखांकित करता है।

अध्ययनों में गंगा तट पर वनस्पति पैटर्न का पता लगाया गया है। यह शोध भविष्य के प्रभावों की बेहतर भविष्यवाणी करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि बारी-बारी से गर्म और ठंडे एपिसोड (रोमन वार्म पीरियड, डार्क एज कोल्ड पीरियड, मीडिएवल वार्म पीरियड और लिटिल आइस एज) ने वनस्पति पैटर्न को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इससे मानव पलायन को मजबूर हुआ और संभावित रूप से गुप्त, गुर्जर प्रतिहार और चोल जैसे प्रमुख भारतीय राजवंशों के उत्थान और पतन में योगदान दिया।

भारतीय शोधकर्ताओं का यह अध्ययन कैटेना पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

दरअसल, मध्य गंगा मैदान (सीजीपी) में पिछले होलोसीन (लगभग 2,500 वर्ष) के लिए पैलियोक्लाइमेट रिकॉर्ड की अत्यधिक कमी है, जो इस क्षेत्र में पिछले जलवायु पैटर्न को समझने में एक महत्वपूर्ण शोध अंतराल को उजागर करता है।

केंद्र सरकार के एक स्वायत्त संस्थान बीएसआईपी के वैज्ञानिकों ने ऐतिहासिक जलवायु गतिशीलता को बेहतर ढंग से समझने के लिए विशेष रूप से भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (आईएसएम) के संबंध में इन पैलियोक्लाइमैटिक तरीकों की खोज की है।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में सरसापुखरा झील से निकाले गए तलछट कोर से पराग और अन्य मल्टी प्रॉक्सी विश्लेषण किया गया। यह पराग मिट्टी और तलछट में माइक्रोफॉसिल के रूप में जीवित रहता है। मल्टी प्रॉक्सी विश्लेषण को अर्थ सिस्टम पेलियोक्लाइमेट सिमुलेशन (ईएसपीएस) मॉडल द्वारा पूरक किया गया है। इसके जरिए शोधकर्ताओं ने पिछले 2000 वर्षों के ऐतिहासिक भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (आईएसएम) पैटर्न का पुनर्निर्माण किया।

इसमें भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं के साथ जलवायु परिवर्तनों को सह-संबंधित किया गया। शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे बदलती जलवायु के लिए अधिक उपयुक्त फसलों की पहचान करके, उत्पादकता बनाए रखने और सकल घरेलू उत्पाद की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए कृषि प्रथाओं को अनुकूल बनाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने में मदद कर सकता है, जिससे भविष्य में खाद्य सुरक्षा और आर्थिक मजबूती सुनिश्चित हो सकेगा।