दुष्यंत कुमार: सामाजिक चेतना की बुलंद आवाज, जिनकी कविताएं करती थीं सत्ता से सवाल

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नई दिल्ली, 31 अगस्त (आईएएनएस)। ‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’ इस कविता को पढ़ते ही मन में आम आदमी की गहरी पीड़ा, अंतहीन संघर्ष और उबलते आक्रोश की तस्वीर सामने आती है। दुष्यंत कुमार ने इन पंक्तियों में न केवल भावनाओं को उकेरा, बल्कि समाज में बदलाव की तीव्र चाह को भी आवाज दी।

हिंदी साहित्य के मशहूर कवि, गजलकार और नाटककार दुष्यंत कुमार ने अपनी रचनाओं में सामाजिक अन्याय, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मानवीय संवेदनाओं को गहरी संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया। उनकी गजलें और कविताएं आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष और आक्रोश को आवाज देती हैं। उनकी लेखनी में विद्रोह और करुणा का अनूठा संगम दिखता है, जो दुष्यंत कुमार को हिंदी साहित्य में अमर बनाता है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितंबर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के नवादा गांव में हुआ था। एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाले दुष्यंत कुमार ने दसवीं कक्षा से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी, जिसे सींचने का काम इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने किया, जहां उन्होंने हिंदी साहित्य में शिक्षा प्राप्त की।

दुष्यंत कुमार ने गजल को हिंदी साहित्य में एक नया आयाम दिया। उनकी गजलें पारंपरिक उर्दू गजल के ढांचे में रहते हुए भी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को बेबाकी से उठाती थीं। उनकी कविताओं में सामाजिक अन्याय, भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ तीखा विरोध दिखता है। उन्होंने कहा था, “गजल मुझ पर नाजिल नहीं हुई है। मैं पच्चीस वर्षों से इसे सुनता और पसंद करता आया हूं, लेकिन गजल लिखने या कहने के पीछे एक जिज्ञासा अक्सर मुझे तंग करती है और वह है भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि मिर्जा गालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए गजल का माध्यम ही चुना? अगर गजल के माध्यम से मिर्जा गालिब अपनी तकलीफ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं, तो मेरी दोहरी तकलीफ (जो व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुंच सकती? “

दुष्यंत कुमार अपनी एक कविता के जरिए समाज में जोश भरने की भी कोशिश करते दिखाई देते हैं। वह लिखते हैं, “कैसे आकाश में सुराख हो नहीं सकता। एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।”

दुष्यंत कुमार की सोच और तेवर का जिक्र करते हुए निदा फाजली ने लिखा, “दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है।”

दुष्यंत कुमार की रचनाएं 1970 के दशक के भारत में बढ़ते असंतोष और आपातकाल की पृष्ठभूमि में लिखी गईं। उनकी गजलें जनता के आक्रोश और बदलाव की मांग को व्यक्त करती हैं। उनकी लेखनी में व्यंग्य, विद्रोह और संवेदनशीलता का मिश्रण है, जो उन्हें समकालीन कवियों से अलग करता है।

उनके काव्य-संग्रहों में ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’ और ‘जलते हुए वन का वसंत’ शामिल हैं, जबकि उपन्यास विधा में उन्होंने ‘छोटे-छोटे सवाल’, ‘आंगन में एक वृक्ष’ और ‘दुहरी जिंदगी’ जैसे उल्लेखनीय योगदान दिए। उनका प्रसिद्ध नाटक ‘और मसीहा मर गया’ है और ‘मन के कोण’ उनकी रचित एकांकी है। इसके अलावा, उन्होंने ‘एक कंठ विषपायी’ नामक काव्य-नाटक भी लिखा।

दुष्यंत कुमार का जीवनकाल छोटा रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने हिंदी साहित्य में अमिट छाप छोड़ी। दुष्यंत कुमार ने 30 दिसंबर 1975 को महज 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। लेकिन, तब तक वे उस मुकाम को हासिल कर चुके थे, जिसे पाने में लोगों की जिंदगी बीत जाती है।