नई दिल्ली, 1 दिसंबर (आईएएनएस)। दुनिया जलवायु परिवर्तन को केवल तापमान बढ़ने, बर्फ पिघलने या समुद्र का स्तर ऊपर उठने जैसे भौतिक संकटों के रूप में देखती रही है, पर कुछ रिसर्च में दावा किया गया है कि ये मेंटल हेल्थ पर भी नकारात्मक असर डाल रहे हैं।
द लांसेट काउंटडाउन 2024 की एक रिपोर्ट ने पहली बार मानसिक स्वास्थ्य पर इसके गहरे प्रभाव को स्पष्ट और वैज्ञानिक रूप से सामने रखा। यह अध्ययन कहता है कि क्लाइमेट चेंज अब केवल पर्यावरणीय खतरा नहीं रहा, बल्कि यह वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य संकट का भी कारण बन गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, दस वर्षों में (2014-2024) ही क्लाइमेट–ट्रिगर स्ट्रेस, एंग्जाइटी, डिप्रेशन और पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी) के मामलों में 30–40 प्रतिशत तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है, और सबसे ज्यादा प्रभाव एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों में देखा गया।
जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाली मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं हमारी नियमित दिनचर्या पर नकारात्मक असर डाल रही हैं। उदाहरण के लिए, लंबे समय तक जारी रहने वाली हीटवेव केवल शारीरिक थकान ही नहीं बढ़ातीं, यह दिमाग के उस हिस्से को प्रभावित करती हैं जो मूड को स्थिर रखता है। द लांसेट के आंकड़ों के अनुसार, 35 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों में दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े आपातकालीन केस 8–12 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। भारत जैसे देश में यह प्रभाव और भी तीव्र है, जहां गर्मी के महीनों में एंग्जाइटी और आक्रामकता से जुड़े केस तेजी से बढ़ते दिखते हैं।
इसके साथ ही बाढ़, जंगलों में आग, तूफान और सूखे जैसी चरम मौसम घटनाएं भी मनोवैज्ञानिक आघात का बड़ा कारण बन रही हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने वाले 45 प्रतिशत लोगों में पीटीएसडी के लक्षण पाए गए—यह संख्या युद्ध क्षेत्र से लौटने वाले सैनिकों के बराबर है।
क्लाइमेट चेंज के कारण होने वाला इको-एंग्जाइटी भी एक नया और तेजी से बढ़ता मानसिक स्वास्थ्य संकट बन चुका है। यह वह चिंता है जो भविष्य के पर्यावरणीय खतरों और अनिश्चितता के डर से पैदा होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर के 16–25 वर्ष की उम्र के युवाओं में से 59 प्रतिशत मानते हैं कि “भविष्य सुरक्षित नहीं है”, जबकि 45 प्रतिशत युवाओं को लगता है कि वे बच्चों को जन्म देने से डरते हैं क्योंकि आने वाले दशक में जलवायु संकट और गंभीर होगा। यह मानसिक बोझ कई युवाओं को क्रॉनिक स्ट्रेस, अनिद्रा और डिप्रेशन की ओर धकेल रहा है।
आर्थिक अस्थिरता भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है। खेतों के सूखने, फसल बर्बाद होने और आजीविका छिनने की वजह से ‘क्लाइमेट–इंड्यूज्ड स्ट्रेस’ तेजी से बढ़ रहा है। एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समुदायों में आत्महत्या दरों में भी 5–10 प्रतिशत तक वृद्धि देखी गई है—विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में। भारतीय राज्यों जैसे महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में किसान आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि में मौसम की अनिश्चितता महत्वपूर्ण कारणों में से एक बन चुकी है।
जलवायु परिवर्तन पर चर्चाएं अक्सर कार्बन उत्सर्जन और ऊर्जा नीति तक सीमित रह जाती हैं, लेकिन अब बात सिर्फ धरती की नहीं, मानव मन के सेहत की भी होनी जरूरी है।




