नई दिल्ली, 24 दिसंबर (आईएएनएस)। हैदराबाद के निजाम का दरबार लगा था। श्वेत वस्त्र, ललाट पर चंदन लगाए एक तेजस्वी ब्राह्मण, पंडित मदन मोहन मालवीय सामने खड़े थे। वे काशी में एक ऐसे विश्वविद्यालय का स्वप्न लेकर आए थे, जहां भारतीय संस्कार और आधुनिक विज्ञान का संगम हो। जब मालवीय ने चंदा मांगा, तो अहंकारी निजाम ने झिड़कते हुए अपनी पुरानी जूती उनकी ओर उछाल दी और कहा, “यही है मेरे पास देने के लिए।”
कोई और होता तो अपमान से दुखी होता, लेकिन मालवीय ‘महामना’ थे। उन्होंने वह जूती उठाई, उसे सिर से लगाया और सीधे बाजार पहुंच गए। वहां उन्होंने ढोल बजाकर शोर मचा दिया, निजाम की शाही जूती की नीलामी हो रही है।
अपनी इज्जत मिट्टी में मिलते देख निजाम ने तुरंत भारी रकम देकर वह जूती वापस खरीदी और विश्वविद्यालय के कोष में बड़ा दान दिया। यह थे मालवीय, जिन्हें महात्मा गांधी ने ‘भिखारियों का राजकुमार’ कहा था।
25 दिसंबर 1861 को तीर्थराज प्रयाग की पुण्यभूमि पर जब मदन मोहन का जन्म हुआ, तब देश 1857 की क्रांति के बाद की राख से दोबारा खड़ा हो रहा था। पिता पंडित ब्रजनाथ की भागवत कथाओं ने उनमें धर्म की जड़ें गहरी कीं, तो म्योर सेंट्रल कॉलेज की आधुनिक शिक्षा ने उन्हें तर्क की शक्ति दी। ‘मकरंद’ उपनाम से कविताएं लिखने वाले इस युवक के भीतर देश को स्वतंत्र देखने की छटपटाहट बचपन से ही थी।
मालवीय ने ‘हिंदुस्तान’, ‘अभ्युदय’ और ‘द लीडर’ जैसे समाचार पत्रों के माध्यम से सोए हुए भारत को जगाया। उनकी वकालत का लोहा तो पूरा देश तब माना जब उन्होंने ‘चौरी-चौरा कांड’ के 156 अभियुक्तों को फांसी के फंदे से बचा लिया। सर तेज बहादुर सप्रू ने ठीक ही कहा था कि यदि मालवीय जी केवल वकालत करते, तो वे दुनिया के सबसे बड़े कानूनविद् होते। लेकिन, उनकी मंजिल निजी लाभ नहीं, राष्ट्र की सेवा थी।
वर्ष 1916 की वसंत पंचमी का दिन था। गंगा के किनारे ‘बनारस हिंदू विश्वविद्यालय’ का शिलान्यास हो रहा था। मालवीय जी का विजन स्पष्ट था कि हमें ऐसे युवा चाहिए जो संस्कृत भी जानें और साइंस भी। उन्होंने दरभंगा के महाराजा से लेकर आम आदमी तक से चंदा जुटाया। आज बीएचयू की 1,300 एकड़ की हरियाली और उसकी भव्यता मालवीय जी के उसी अडिग संकल्प का जीवंत प्रमाण है।
पंडित मोहन मालवीय कांग्रेस के चार बार अध्यक्ष रहे। वे नरम और गरम दल के बीच का वह पुल थे, जिस पर चलकर भारतीय राजनीति आगे बढ़ी। आज हम जो राष्ट्रवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ गर्व से दोहराते हैं, उसे मुंडकोपनिषद से निकालकर राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले मालवीय ही थे।
उन्होंने हजारों दलितों को मंत्र-दीक्षा देकर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा। गंगा की अविरल धारा को बचाने के लिए उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष किया और ‘गंगा महासभा’ बनाई। उनके लिए भारत का अर्थ उसकी नदियां, उसकी भाषा (हिंदी) और उसकी संस्कृति थी।
12 नवंबर 1946 को जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो देश आजादी की दहलीज पर खड़ा था। डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें ‘कर्मयोगी’ कहा, तो गांधी जी उन्हें ‘महामना’ मानते थे। उनके निधन के दशकों बाद, 2014 में भारत सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से अलंकृत कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।

