भारत के महान कार्टूनिस्ट के. शंकर पिल्लई के नेहरू भी थे फैन, बच्चों के लिए शुरू की थी खास प्रतियोगिता

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नई दिल्ली, 30 जुलाई (आईएएनएस)। जब भारत के महान कार्टूनिस्टों की चर्चा होती है, तो आरके लक्ष्मण, मारियो मिरांडा और प्राण कुमार शर्मा जैसे दिग्गजों का नाम स्वाभाविक रूप से सामने आता है। लेकिन इनके साथ-साथ एक और कार्टूनिस्ट थे, जिनके कार्टून्स ने भारतीय समाज, राजनीति और संस्कृति पर अमिट छाप छोड़ी। वह थे के. शंकर पिल्लई (केशव शंकर पिल्लै), जिन्हें शंकर के नाम से जाना जाता है।

शंकर केवल एक कार्टूनिस्ट ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी साहित्यकार और गहन सामाजिक टिप्पणीकार भी थे। उनके कार्टून की सादगी, व्यंग्य और गहराई ने उन्हें भारतीय कला और संस्कृति में अमर कर दिया।

31 जुलाई, 1902 को केरल के कायमकुलम में जन्मे शंकर पिल्लई ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा केरल में पूरी की और बाद में मुंबई विश्वविद्यालय से कला में डिग्री हासिल की। शंकर ने अपने करियर की शुरुआत 1930 के दशक में एक अखबार में कार्टूनिस्ट के रूप में की। उनके कार्टून्स में सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य का अनूठा मिश्रण था, जो पाठकों को हंसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करता था। वे भारत के पहले कार्टूनिस्ट थे, जिन्हें किसी समाचार पत्र ने पूरे समय के लिए नौकरी दी थी। देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियों पर बनाए उनके कार्टूनों ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा और शंकर मशहूर होते चले गए।

1948 में उन्होंने ‘शंकर्स वीकली’ की स्थापना की, जो बच्चों के लिए भारत की पहली पत्रिका थी। इस पत्रिका ने न केवल बच्चों के लिए साहित्यिक सामग्री प्रदान की, बल्कि रचनात्मक लेखन और कला को भी प्रोत्साहित किया।

एनसीईआरटी की कक्षा आठवीं के पाठ्यक्रम में ‘बच्चों के प्रिय केशव शंकर पिल्लै’ को शामिल किया गया है। इसमें देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू से जुड़े किस्से को शेयर किया गया है। इसमें लिखा है कि 1950 में ‘शंकर्स वीकली’ के बाल-विशेषांक में नेहरू ने लिखा था, अनेक देशों के बच्चों की यह फौज अलग-अलग भाषा, वेशभूषा में होकर भी एक-जैसी ही है। कई देशों के बच्चों को इकट्ठा कर दो, वे या तो खेलेंगे या लड़ेंगे और यह लड़ाई भी खेल जैसी ही होगी। वे रंग, भाषा या जाति पर कभी नहीं लड़ेंगे। शंकर पिल्लै का उद्देश्य भी यही था, संसार भर के बच्चों को करीब लाना।

इसके बाद हर वर्ष ‘शंकर्स वीकली’ के बाल-विशेषांक निकलते रहे, हर वर्ष यह प्रतियोगिता होती रही और उसमें भाग लेने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ती रही। उनकी चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिसने बच्चों के साहित्य को बढ़ावा दिया। इस पत्रिका की लोकप्रियता और प्रभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह भारतीय समाज और राजनीति की नब्ज को बखूबी दर्शाती थी। हालांकि, 1975 में आपातकाल के दौरान सरकारी दबाव के कारण इसे भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा और 27 साल के शानदार सफर के बाद इस अनोखी पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया।

शंकर को उनके योगदान के लिए पद्मश्री (1956), पद्म भूषण (1966), और पद्म विभूषण (1976) जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। हालांकि, शंकर पिल्लई का निधन 26 दिसंबर, 1989 को हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी भारतीय कार्टूनिंग और बच्चों के साहित्य में जीवित है।