पटना, 27 अक्टूबर (आईएएनएस)। बिहार की राजधानी पटना से लगभग दक्षिण-पश्चिम में सोन नदी के किनारे बसा पालीगंज, सिर्फ एक अनुमंडल स्तरीय कस्बा नहीं, बल्कि बिहार की ग्रामीण राजनीति का एक ऐसा अखाड़ा है, जहां मतदाता किसी एक दल या व्यक्ति के प्रति लंबे समय तक अटल नहीं रहते। यहां की राजनीतिक मिट्टी हर चुनाव में एक नया रंग दिखाती है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण 2020 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला।
2020 के चुनाव में पालीगंज ने एक बड़ा सियासी उलटफेर कर दिखाया, जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (लिबरेशन) के युवा उम्मीदवार संदीप सौरभ ने शानदार जीत दर्ज की।
महागठबंधन की ओर से लड़ रहे सौरभ ने जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के जय वर्धन यादव को बड़े अंतर से हराया। यह भारी अंतर इस बात का स्पष्ट संकेत था कि यहां की जनता किसी भी पार्टी को लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रहने देती।
पालीगंज का राजनीतिक इतिहास दो दिग्गज नेताओं के वर्चस्व की कहानी कहता है। कांग्रेस के राम लखन सिंह यादव और सोशलिस्ट पार्टी के चंद्रदेव प्रसाद वर्मा। इन दोनों ने बारी-बारी से इस सीट पर पांच-पांच बार जीत दर्ज की, और एक-दूसरे को पराजित करने का सिलसिला बरसों तक चलता रहा।
इस राजनीतिक मुकाबले की शुरुआत आजादी के बाद 1951 के पहले आम चुनाव से हुई, जब राम लखन सिंह यादव ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की। अगले चुनाव, 1957 में, वर्मा ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर वापसी की। यह सिलसिला चलता रहा। 1980, 1985 और 1990 में राम लखन सिंह यादव ने हैट्रिक लगाई, वहीं वर्मा ने 1991 के उपचुनाव और 1995 में जनता दल के टिकट पर लगातार दो बार जीत हासिल की।
कांग्रेस ने पालीगंज सीट कुल छह बार जीत दर्ज की है (जिनमें पांच जीत राम लखन सिंह यादव की थीं)। वहीं समाजवादी पार्टियों ने चंद्रदेव प्रसाद वर्मा के नेतृत्व में तीन बार और भाकपा (माले) ने भी तीन बार इस सीट पर कब्जा किया है।
1990 के दशक के बाद पालीगंज में चुनावी समीकरण पूरी तरह बदल गए। इस समय कांग्रेस का पुराना दबदबा खत्म हुआ और यह सीट भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और भाकपा (माले) (लिबरेशन) के हाथों में आती-जाती रही। भाजपा, राजद और जनता दल ने दो-दो बार यह सीट जीती, जबकि 1977 में एक बार निर्दलीय उम्मीदवार ने भी जीत दर्ज की थी। यह अस्थिर चुनावी मूड ही पालीगंज की सबसे बड़ी पहचान है।
2020 का चुनाव कई दलबदलुओं की मौजूदगी के कारण खास रहा। राजद के मौजूदा विधायक जय वर्धन यादव (जो राम लखन सिंह यादव के पोते हैं) ने तब जदयू का दामन थाम लिया, जब राजद ने यह सीट अपने गठबंधन के तहत भाकपा (माले) को दे दी। इस उठापटक में, भाजपा की ओर से 2010 की विधायक उषा विद्यार्थी लोक जनशक्ति पार्टी से चुनावी मैदान में उतर गईं।
इस उलझन भरे मुकाबले में, सीपीआई (माले) के उम्मीदवार संदीप सौरभ ने सभी को चौंकाते हुए जय वर्धन यादव को बड़े अंतर से हरा दिया और सीट महागठबंधन के खाते में चली गई। यह जीत इस बात की पुष्टि करती है कि पालीगंज के मतदाताओं के लिए उम्मीदवार की पृष्ठभूमि और राजनीतिक निष्ठा से ज्यादा, स्थानीय मुद्दे मायने रखते हैं।
पालीगंज विधानसभा क्षेत्र में जातिगत समीकरण हमेशा से चुनावी नतीजों में एक निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। यहां के चुनावी नतीजों में मुख्य रूप से यादव, मुस्लिम और भूमिहार मतदाता महत्वपूर्ण प्रभाव डालते रहे हैं। एमवाई (मुस्लिम-यादव) फैक्टर के साथ-साथ, वामपंथी दलों का मजबूत और पुराना आधार भी यहां की राजनीति को प्रभावित करता है।
पालीगंज का नाम भी इतिहास से जुड़ा है। माना जाता है कि इसका नाम प्राचीन पाली भाषा से लिया गया है, जो बौद्ध ग्रंथों से जुड़ी है। भारतपुरा गांव (भरतपुरा) में गुलाम वंश, तुगलक, बाबर और अकबर काल के 1,300 से अधिक प्राचीन सिक्कों की खोज इसके समृद्ध ऐतिहासिक महत्व को दर्शाती है।
पालीगंज का मिजाज देखकर लगता है कि महज कुछ ही दिनों में शुरू हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव में भी यह सीट कांटे की टक्कर का केंद्र बनी रहेगी। पालीगंज की लड़ाई केवल दो पार्टियों की नहीं, बल्कि इतिहास और बदलते जनमत के बीच वर्चस्व की लड़ाई होगी।












