नई दिल्ली, 26 अक्टूबर (आईएएनएस)। मंदिर की पैड़ी या सीढ़ी पर बैठना सिर्फ आराम करने का जरिया नहीं, बल्कि इसके पीछे एक खास परंपरा और उद्देश्य छिपा है। आजकल लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अपने घर, व्यापार या राजनीति की बातें करने लगते हैं, लेकिन प्राचीन समय में यह पैड़ी शांति और ध्यान का स्थान था।
मान्यता है कि जब भी हम किसी मंदिर में दर्शन करते हैं, तो बाहर आकर थोड़ी देर पैड़ी पर बैठकर भगवान का ध्यान करना चाहिए।
मंदिर की सीढ़ी पर बैठते ही एक विशेष श्लोक ‘अनायासेन मरणम्, बिना देन्येन जीवनम्। देहान्त तव सानिध्यम्, देहि में परमेश्वरम्।’ का पाठ करना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमारी मृत्यु बिना किसी तकलीफ के हो, हम बीमार होकर या परेशान होकर न मरें। साथ ही जीवन ऐसा हो कि हमें किसी पर आश्रित न रहना पड़े, अपने बलबूते पर जीवन व्यतीत करें। जब भी मृत्यु हो, भगवान के सामने हमारे प्राण जाएं और भगवान का आशीर्वाद प्राप्त हो।
इस श्लोक में यह संदेश है कि हमें सांसारिक वस्तुओं के लिए याचना नहीं करनी चाहिए। घर, धन, नौकरी, पुत्र-पुत्री जैसी चीजें भगवान अपनी कृपा से देते हैं। प्रार्थना का मतलब निवेदन और विशेष अनुरोध है, जबकि याचना सांसारिक इच्छाओं के लिए होती है।
दर्शन करते समय आंखें खुली रखनी चाहिए और भगवान के स्वरूप, चरण, मुखारविंद और श्रृंगार का पूरा आनंद लेना चाहिए। आंखें बंद करना गलत है, क्योंकि हम दर्शन करने आए हैं। लेकिन बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठकर आंखें बंद करके भगवान का ध्यान करना चाहिए और ऊपर बताए गए श्लोक का पाठ करना चाहिए।
यदि ध्यान करते समय भगवान का स्वरूप ध्यान में नहीं आता, तो फिर से मंदिर जाकर दर्शन करें और फिर पैड़ी पर बैठकर ध्यान और श्लोक का पाठ करें। यह प्रथा हमारे शास्त्रों और बुजुर्गों की परंपरा में बताई गई है।
इसका उद्देश्य हमारे जीवन में स्वास्थ्य, लंबी उम्र और मानसिक शांति सुनिश्चित करना है। मंदिर में नेत्र खुले और बाहर बैठकर नेत्र बंद करके ध्यान करना हमारी श्रद्धा, ध्यान और भक्ति का प्रतीक है।













