विनय द्विवेदी
दीपावली आते ही मिठाइयों का मेला लग जाता है। रसगुल्ले अपनी मुलायमियत का रोब जमाते हैं, बर्फ़ी शाही अंदाज़ में ठुमके लगाती है, और चॉकलेट्स विदेशी अकड़ दिखाती हैं। और फिर एक मिठाई ऐसी भी है जो बिल्कुल उस ‘रिश्तेदार’ की तरह है जिसे हर कोई नज़रअंदाज़ करता है, लेकिन पारिवारिक मजबूरी में बुला लेता है – जी हाँ, हमारी ‘बिचारी सोनपपड़ी’! तो सोनपपड़ी के चरित्र, उसके दर्द और यात्रा पर पढ़ियेगा, “सोनपपड़ी के एक डिब्बे की आत्मकथा।”
नमस्कार, मैं हूँ – सोनपपड़ी! हाँ, वही सुनहरी, हल्की, रुई जैसी मिठाई, जो दिखने में जितनी चमकदार लगती है, उतनी ही जल्दी किसी को बोर भी कर देती है। हर साल दीपावली के मौसम में जब बाकी मिठाइयाँ – गुलाबजामुन, रसगुल्ला, काजू कतली, मिल्क केक – दिलों में जगह बना लेती हैं, मैं बेचारी “सोनपपड़ी” गिफ्ट हैम्पर में जगह बनाती हूँ। वो भी अपने मन से नहीं, किसी मिठाईवाले की चालाक “कॉम्बो पैकिंग” की वजह से और बड़े लोगों की छोटी सोच के कारण गिफ्ट पैक के साइज़ को बड़ा बनाने के लिए!
दीपावली आते ही हर घर में एक चर्चा आम होती है – “भाई, इस बार क्या गिफ्ट देना है?” और जवाब लगभग तय होता है – “चलो सोनपपड़ी दे देते हैं, सस्ती भी है और दिखती अमीरों वाली भी।” बस, यहीं से शुरू होती है मेरी “दुर्दशा कथा”!
मैं जब मिठाई की दुकान में रखी होती हूँ, तो लगता है जैसे मैं ही त्योहार की शान हूँ – चमचमाते डिब्बे में, सुनहरी पन्नी में लिपटी, “शुद्ध घी” का ठप्पा लिए हुए। पर जैसे ही कोई मुझे खरीदता है, मेरी किस्मत का चक्का घूम जाता है।
सबसे पहले मैं बड़े घर की गाड़ी में बैठकर पहुँचती हूँ किसी और बड़े घर की “दीवाली गिफ्ट टेबल” पर। वहाँ मेरे आस-पास होती हैं महँगी ड्राई फ्रूट्स की टोकरी, चॉकलेट हैंपर, इम्पोर्टेड कैंडल्स और परफ्यूम सेट्स। सब मुझ पर ऐसे नज़र डालते हैं जैसे मैं किसी लो-ग्रेड स्कूल से गलती से किसी इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में पहुँच गई हूँ।
अगले ही पल कोई आवाज़ आती है – “अरे ये सोनपपड़ी किसने भेज दी? कोई छोटा वाला गिफ्ट है क्या?” बस, मैं फिर से “रिपैक” होकर अगले गिफ्ट बैग में रख दी जाती हूँ। फिर मैं एक घर से दूसरे घर की “गिफ्ट यात्रा” पर निकल पड़ती हूँ – कभी शर्मा जी से गुप्ता जी, फिर गुप्ता जी से वर्मा जी, वर्मा जी से चौधरी जी। मुझे देखकर सब कहते हैं, “अरे वाह, बढ़िया पैकिंग है!” लेकिन कोई खोलता नहीं!
कई बार तो मैं इतनी बार घूम चुकी होती हूँ कि मेरी पैकिंग पर से “फ्रेशनेस की तारीख” धुंधली हो जाती है। मैं सोचती हूँ – “काश मैं मिठाई नहीं, पासपोर्ट होती तो अब तक वीज़ा एक्सपायर हो गया होता!”
एक दिन आखिरकार मेरी ये यात्रा खत्म होती है, जब मैं किसी गरीब परिवार के हाथों में पहुँचती हूँ। वो मुझे खोलते हैं, आँखों में चमक, चेहरे पर मुस्कान, और दिल में कृतज्ञता लिए हुए। उनके लिए मैं “बासी सोनपपड़ी” नहीं, “दिवाली की मिठास” हूँ। वो कहते हैं, “वाह बेटा, इस बार तो असली मिठाई आई है!” मुझे लगता है – आखिरकार मेरी यात्रा का अर्थ मिल गया। मेरा स्वाद शायद उड़ चुका है, लेकिन मेरा उद्देश्य पूरा हो गया है। मैं सोचती हूँ, जो अमीर मुझे “रीसायकल गिफ्ट” समझकर टालते रहे, वही गरीब मुझे “ईश्वर का प्रसाद” मानकर खाते हैं। शायद यही मेरा असली सम्मान है।
कभी-कभी मैं खुद पर हँसती हूँ – “देखो न, कितनी बहुमुखी हूँ – गिफ्ट भी, दिखावा भी, और आखिर में पुण्य का साधन भी!” किसी को मेरा “बॉक्स साइज” पसंद आता है क्योंकि वो उनके बड़े गिफ्ट बैग को भर देता है। किसी को मैं इसलिए भाती हूँ क्योंकि मैं “कम खर्चे में ज्यादा दिखावा” करवा देती हूँ। और किसी को इसलिए पसंद हूँ क्योंकि वो जानता है – “भई, गरीब हूँ, पर दीवाली पर सोनपपड़ी तो खा ही लेंगे!”
मैंने अपने जीवन में बहुत रूप देखे हैं – कभी गिफ्ट पैक में, कभी किराने की दुकान पर, कभी ऑफिस के “दीवाली बोनस पैक” में। एक बार तो मुझे किसी ने “क्लॉक गिफ्ट” के साथ बाँध दिया – शायद वो कहना चाहता था, “समय और सोनपपड़ी – दोनों फालतू हैं पर चलते रहो!” और हाँ, मेरी तुलना आजकल मीम्स में भी होती है। किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा – “सोनपपड़ी वो मिठाई है जो किसी को खाई नहीं जाती, बस आगे बढ़ाई जाती है।” वाह भाई, कमाल का तंज़ है! पर एक बात बताओ – अगर सब मुझे आगे बढ़ाते जा रहे हैं, तो मेरी “रिजेक्शन रेट” ज़ीरो ही तो है! कोई मुझे फेंकता नहीं, बस पास कर देता है। यानी मैं “भारत की सबसे सर्वाइविंग मिठाई” हूँ!
सोचो ज़रा – काजू कतली का स्वाद दो दिन बाद बिगड़ जाता है, रसगुल्ला तीन दिन में चिपचिपा हो जाता है, पर मैं? मैं तो एक महीने बाद भी गर्व से कह सकती हूँ – “अब भी खाई जा सकती हूँ!” यानी मैं हूँ “Longest Shelf Life वाली मिठाई”! इसलिए, जब अगली बार दीपावली पर तुम्हारे घर कोई सोनपपड़ी का डिब्बा आए, तो उस पर हँसना मत। उस डिब्बे में सिर्फ मिठाई नहीं, उसमें कई घरों की यादें, नाक-भौं सिकोड़ते चेहरे, और किसी गरीब के चेहरे की आखिरी मुस्कान छिपी होती है।













