‘जनकवि’ आलोक धन्वा, जिनकी कविताओं में दिखती है पीड़ा, संघर्ष और आशा की कहानी

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नई दिल्ली, 1 जुलाई (आईएएनएस)। ‘यह कविता नहीं है, यह गोली दागने की समझ है, जो तमाम कलम चलाने वालों को, तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है।’ आलोक धन्वा, हिंदी साहित्य के ऐसे जनकवि हैं, जिन्होंने अपनी गहन और प्रभावशाली रचनाओं से समाज के शोषित-वंचित वर्गों की आवाज को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। सहज भाषा और गहरी सामाजिक चेतना के साथ उनकी लेखनी न केवल साहित्यिक मंचों पर गूंजती है, बल्कि खेतों-खलिहानों और कारखानों में भी जनता के दिलों को छूती है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से मेहनतकश जनता की आवाज को बुलंद किया और समाज की विसंगतियों और शोषण के खिलाफ एक तीखा प्रतिरोधी स्वर भी गढ़ा।

2 जुलाई 1948 को बिहार के मुंगेर में जन्मे आलोक धन्वा ने अपनी गिनी-चुनी, लेकिन गहन और प्रभावशाली रचनाओं से हिंदी कविता को एक नई दिशा देने का काम किया। उनकी कविताएं साधारण इंसान के जीवन, उसकी पीड़ा, संघर्ष और आशा की कहानी बयां करती हैं। धन्वा की कलम में ऐसा जादू है जिससे उनकी कविताओं में सहज भाषा और गहरी संवेदना का संगम देखने को मिल जाता है। उनके शब्द पाठकों को न केवल सोचने पर मजबूर करते हैं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरित भी करते हैं।

उनकी कविताएं जैसे ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘जनता का आदमी’ और ‘पतंग’ न केवल साहित्यिक कृतियां हैं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन का हिस्सा हैं, जो शोषित-वंचित वर्गों के हक की आवाज उठाती हैं। इसके अलावा, ‘भागी हुई लड़कियां’, ‘मुलाकातें’ और ‘भूल पाने की लड़ाई’ भी समाज के अन्य पहलुओं से रू-ब-रू कराती हैं।

अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंगेर में हासिल करने वाले आलोक धन्वा की साहित्यिक यात्रा 70 के दशक में शुरू हुई, जब उनकी पहली कविता ‘जनता का आदमी’ 1972 में ‘वाम पत्रिका’ में प्रकाशित हुई और उसी साल ‘गोली दागो पोस्टर’ को ‘फिलहाल’ पत्रिका में छापा गया। इन कविताओं ने उन्हें हिंदी साहित्य में एक प्रगतिशील और प्रतिरोधी कवि के रूप में स्थापित किया। उनकी कविताएं 1970-80 के दशक के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य, विशेष रूप से नक्सलबाड़ी आंदोलन और मेहनतकश वर्गों के संघर्षों से प्रेरित थीं।

‘जनता का आदमी’ की ये पंक्तियां ‘बर्फ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक, कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरुद्ध। जलते हुए गांवों के बीच से गुजरती है मेरी कविता, तेज आग और नुकीली चीखों के साथ, जली हुई औरत के पास, सबसे पहले पहुंचती है मेरी कविता।’ आलोक धन्वा के अंदर मौजूद उस इंसान को दिखाती हैं, जो सिर्फ जनता से जुड़े हुए मुद्दों पर बात करता है।

इसके अलावा, आलोक धन्वा की कविता ‘मुलाकातें’ उनकी प्रेम, संवेदना और मानवीय रिश्तों की आत्मा को बहुत ही खूबसूरती के साथ बयां करती हैं। वे अपनी कविता में लिखते हैं, ‘अचानक तुम आ जाओ, इतनी रेलें चलती हैं भारत में, कभी कहीं से भी आ सकती हो, मेरे पास कुछ दिन रहना इस घर में, जो उतना ही तुम्हारा भी है, तुम्हें देखने की प्यास है गहरी, तुम्हें सुनने की, कुछ दिन रहना, जैसे तुम गई नहीं कहीं।’

वे पहले ऐसे जनकवि थे, जिनकी कविताओं का अंग्रेजी और रूसी भाषाओं में अनुवाद किया गया, जो उनकी वैश्विक पहचान को दर्शाता है। उनका एकमात्र काव्य संग्रह ‘दुनिया रोज बनती है’ (1998) हिंदी साहित्य में मील का पत्थर है। उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें ‘पहल सम्मान’, ‘नागार्जुन सम्मान’, ‘फिराक गोरखपुरी सम्मान’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान’, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का ‘साहित्य सम्मान’, और ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान’ जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया।