नई दिल्ली, 25 दिसंबर (आईएएनएस)। 13 मार्च 1940 की सर्द भरी दोपहर। लंदन का ऐतिहासिक कैक्सटन हॉल खचाखच भरा था। मंच पर ब्रिटिश साम्राज्य के रसूखदार चेहरे बैठे थे और ‘अफगानिस्तान’ के राजनीतिक भविष्य पर चर्चा चल रही थी। तभी भीड़ के बीच से एक भारतीय युवक उठा। उसकी चाल में गजब का आत्मविश्वास था और आंखों में एक ऐसी आग जो पिछले 21 वर्षों से ठंडी नहीं हुई थी। उसने अपनी ओवरकोट की जेब से एक किताब निकाली, जिसके पन्नों को काटकर उसने बड़ी चतुराई से एक रिवॉल्वर छिपा रखी थी।
दो धमाके हुए, और पंजाब का पूर्व उप-राज्यपाल माइकल ओ’डायर वहीं ढेर हो गया। यह युवक कोई साधारण इंसान नहीं, बल्कि ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ था, जिन्हें दुनिया आज शहीद ऊधम सिंह के नाम से जानती है।
26 दिसंबर 1899 को सुनाम (पंजाब) के एक साधारण कंबोज परिवार में जन्मे शेर सिंह (बचपन का नाम) ने मात्र 7 साल की उम्र में अनाथ होने का दंश झेला। अमृतसर के ‘सेंट्रल खालसा अनाथालय’ ने उन्हें न केवल सिर छिपाने की जगह दी, बल्कि वह ‘ऊधम’ (साहस) भी दिया, जिसने आगे चलकर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी।
1918 में मैट्रिक के बाद वे फौज में शामिल हुए और मेसोपोटामिया (इराक) के मोर्चे पर गए। वहां उन्होंने पहली बार साम्राज्यवादी शोषण को करीब से देखा, जिसने उनके भीतर छिपे क्रांतिकारी को जगा दिया।
अमृतसर के जलियांवाला बाग में जब जनरल डायर की बंदूकों से निकली गोलियां निर्दोष भारतीयों के सीने छलनी कर रही थीं, तब ऊधम सिंह वहीं मौजूद थे। वे लोगों को पानी पिलाने की सेवा कर रहे थे।
उन्होंने अपनी आंखों से लाशों के ढेर और चीखते-बिलखते बच्चों को देखा। उस शाम, जब बाग की मिट्टी खून से लाल थी, ऊधम सिंह ने कसम खाई कि वह इस कत्लेआम के असली गुनहगार, पंजाब के तत्कालीन ‘बॉस’ माइकल ओ’डायर को कभी नहीं छोड़ेंगे। ओ’डायर ने ही इस नरसंहार को ‘उचित’ ठहराया था।
ऊधम सिंह केवल एक साहसी देशभक्त नहीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय रणनीतिकार थे। 1920 और 30 के दशक में उन्होंने दुनिया के नक्शे पर वह सब कुछ किया जो एक जासूस करता है। वे अफ्रीका से अमेरिका (सैन फ्रांसिस्को) पहुंचे और गदर पार्टी के सक्रिय सदस्य बने।
अमेरिका में उन्होंने फोर्ड कंपनी में मैकेनिक के तौर पर काम किया। उनकी यात्रा मेक्सिको, ब्राजील और जर्मनी तक फैली हुई थी।
1927 में जब वे भारत लौटे, तो उनके पास 25 साथियों की टीम और हथियारों का जखीरा था। उन्हें 5 साल की जेल हुई, जहां उनकी मुलाकात अपने आदर्श भगत सिंह से हुई। ऊधम सिंह उन्हें अपना ‘गुरु’ मानते थे।
1934 में जब वे लंदन पहुंचे, तो उन्होंने अपनी पहचान के इतने मुखौटे लगाए कि स्कॉटलैंड यार्ड भी भ्रमित हो गया। कभी वे बढ़ई बने, कभी सड़कों पर सामान बेचा, और कभी हॉलीवुड और ब्रिटिश फिल्मों में ‘एक्स्ट्रा’ के तौर पर काम किया।
‘एलिफेंट बॉय’ (1937) जैसी फिल्मों में उनके छोटे-छोटे किरदार आज भी उनके धैर्य की गवाही देते हैं। उन्होंने ओ’डायर के घर की रेकी की, उसकी आदतों को समझा और 21 साल तक अपने गुस्से को पालते रहे।
मुकदमे के दौरान उन्होंने अपना नाम ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ बताया। यह केवल एक नाम नहीं, बल्कि भारत की साझा संस्कृति और सर्वधर्म एकता का घोषणापत्र था। 5 जून 1940 को जब उन्हें मौत की सजा सुनाई गई, तो उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी।
उन्होंने कहा, “मैं अपने देश के लिए मर रहा हूं और मुझे गर्व है।” 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में उन्हें फांसी दे दी गई।
आजादी के दशकों बाद तक उनके अवशेष लंदन की गुमनाम कब्र में रहे। 1974 में तत्कालीन सरकार के हस्तक्षेप के बाद उनके अवशेष भारत लाए गए।
–आईएएएनएस
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